द नैरेटर फिल्म समीक्षा: रचनात्मकता बनाम स्वामित्व

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By Mr.Zainul

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एक अमीर कपास उद्योगपति, जिसे अपनी ही बनाए गए कपास की चादरों पर नींद नहीं आती, लगातार अनिद्रा से जूझता है। भेड़ें गिनने से लेकर नींद की गोलियां खाने तक, हर तरीका नाकाम रहता है। आखिरकार, वह एक कहानीकार की मदद लेता है, जो अपनी अनोखी कहानियों के ज़रिए उसे सुलाने की कोशिश करता है।

कहानीकार, तारिणी चरण चट्टोपाध्याय (परेश रावल), इस उद्योगपति के लिए सोने की कहानियां सुनाते हैं, लेकिन जल्द ही उन्हें पता चलता है कि उनकी कहानियां उस उद्योगपति के नाम से प्रकाशित हो रही हैं। यह रचनात्मक चोरी का एक खतरनाक मामला बन जाता है।

मुख्य किरदार और प्रदर्शन

परेश रावल द्वारा निभाए गए तारिणी चरण, सत्यजित रे की कहानी “गोल्पो बोलिये तारिणी खुरो” के प्रतिष्ठित पात्र हैं। तारिणी, एक वृद्ध कुंवारे, जो कलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट में रहते हैं, पूंजीवाद के कट्टर विरोधी हैं। वे अपनी नौकरी लंबे समय तक नहीं पकड़ पाते और लगातार प्रकाशनों के बीच भटकते रहते हैं।

आदिल हुसैन, गरोड़िया की भूमिका में, एक ऐसे उद्योगपति को चित्रित करते हैं जो कला और रचनात्मकता में खोए रहते हैं। गरोड़िया अपनी अनिद्रा के कारण तारिणी को अपने घर बुलाते हैं और दोनों अपने जीवन की कहानियां साझा करते हैं। गरोड़िया की कहानी भी एक त्रासदी है—रचनात्मकता की लालसा ने उनकी पहचान छीन ली है।

रचनात्मकता बनाम स्वामित्व

तारिणी की कहानियों को चुराकर गरोड़िया खुद को एक कलाकार के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं। वे कला और साहित्य के प्रति आकर्षण रखते हैं, लेकिन उनमें उसे समझने की गहराई नहीं है। गरोड़िया का यह संघर्ष पूंजीपतियों की उस कमजोरी को दर्शाता है, जहां वे रचनात्मकता को खरीद तो सकते हैं, पर आत्मसात नहीं कर सकते।

गरोड़िया की प्रेमिका सरस्वती (रेवती), जो कला, ज्ञान और संगीत की देवी का प्रतीक हैं, उनके जीवन में एक बड़ा विरोधाभास बन जाती हैं। गरोड़िया का यह स्वीकार कि “सरस्वती को लक्ष्मी पसंद नहीं”, यह दर्शाता है कि कला और धन के बीच गहरी खाई है।

निर्देशन और लेखन

फिल्म एक गहरी टिप्पणी है कि कैसे धन और ताकत, रचनात्मकता और आत्मविश्वास के मुकाबले बौने साबित होते हैं। फिल्म इस बात को भी उजागर करती है कि रचनात्मकता की चोरी करने वाले लोग हमेशा अंदर से असुरक्षित होते हैं।

क्या काम करता है और क्या नहीं

फिल्म की सबसे बड़ी ताकत परेश रावल और आदिल हुसैन का शानदार अभिनय है। सत्यजित रे की कहानी को बड़े परदे पर सजीव किया गया है, और इसके संवाद हर चरित्र की गहराई को उजागर करते हैं। हालांकि, फिल्म का कुछ हिस्सा धीमा लगता है, लेकिन इसका क्लाइमेक्स इसे एक अविस्मरणीय अनुभव बनाता है।

निष्कर्ष

“द नैरेटर” केवल एक कहानी नहीं है, यह रचनात्मकता, स्वामित्व और पहचान के मुद्दों की एक गहरी पड़ताल है। सत्यजित रे की मूल कहानी को जिस तरह से पेश किया गया है, वह हर कला प्रेमी के दिल को छूने वाला है। यह फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि क्या वास्तव में धन और ताकत रचनात्मकता को खरीद सकते हैं, या यह केवल कलाकार के आत्मविश्वास का ही हिस्सा है?

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